KHATU SHYAM JI खाटू श्याम जी

Write By- YOGENDRA SINGH TIHAWALI 

महाभारत काल में पाण्डवों के वनवास के दौरान महाबली भीम और अनार्य राक्षसी हिडिम्बा के विवाह से एक पुत्र उत्पन्न हुआ। केष विहीन सिर होने के कारण उसका नामकरण 'घटोत्कच किया गया। घटोत्कच का विवाह समयावधि में प्रागज्योतिषपुर दानवी साम्राज्ञी रूपवती राजकुमारी कामकंटकटा से हुआ। इनके एक दिव्य बालक का जन्म हुआ। सघन घुंघराले केशों वाले दिव्य बालक का जन्म होने के कारण उसे बर्बरीक नाम दिया गया। देवयोनि के कारण इस दिव्य बालक का विकास तीव्रता से हुआ। अल्पावधि में ही इस तेजस्वी बालक बर्बरीक ने भगवान शिव तथा नव दुर्गाओं की कठोरतम आराधना, तप-साधना करते हुए महर्षि विजय के शिष्यत्व में आयुद्धों, शस्त्रास्त्रों और तीन बाणों की दैविक शक्तियाँ प्राप्त करते हुए स्वयं को असीम बलशाली, वीर योद्धा, महापराक्रमी अपराजेय बनाते हुए, हारने वाले का साथी बनने का संकल्प लिया और निकल पड़े ऐतिहासिक महासमर महाभारत का युद्ध देखने के लिए कुरुक्षेत्र की ओर।


दूरदृष्टा लीलावतार भगवान श्रीकृष्ण ने बालक को आते देखा तो राह में एक पीपल के पेड़ के नीचे ब्राह्मण वेश में बैठ गये। अलौकिक तेजस्वी बालक ने ब्राह्मण को सादर प्रणाम किया तो ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण ने उसका परिचय व प्रयोजन पूछा। दिव्य वीर बर्बरीक के तीन बाणों की अलौकिक अपराजेय शक्तियों को जानकर उसकी परीक्षा लेने की ठानी। वीर बालक को पीपल को पीपल के पेड़ की ओर संकेत करते हुए षरसंधान करने को कहा। वीर बर्बरीक ने एक ही बाण से पीपल के सारे पत्तों का छेदन कर दिया। एक पत्ता ब्राह्मण वेशधारी भगवान श्रीकृष्ण के पैर के नीचे दबा होने के कारण तीर उनके पैर के चतुर्दिक चक्कर लगाने लगा। यह देख ब्राह्मण ने पत्ते पर से अपना पैर हटाया तो उसका छेदन कर तीर वापस तूणीर में चला गया। लीलावतार भगवान श्रीकृष्ण ने महाभारत के धर्मयुद्ध के सम्भावित परिणामों के सन्दर्भ में चिंतन-मनन कर मन ही मन कुछ निश्चय किया। योगेश्वर ने अपनी योगमाया के प्रभाव से भावी धर्मयुद्ध में सत्य की विजय हेतु उस वीर योद्धा का शीश दान में माँग लिया। वीर बर्बरीक ने महाभारत के सम्पूर्ण महासमर को देखने की इच्छा जाहिर करते हुए सहर्ष अपना शीश काटकर समर्पित कर दिया और बन गए शीश के दानी। बर्बरीक की इच्छानुसार भगवान श्रीकृष्ण ने उनके शीश को अमृत से अभिसिंचित कर एक ऊँची जगह स्थापित करवा दिया, जहाँ से उस दिव्य शीश ने सम्पूर्ण महाभारत देखा। महासमर की समाप्ति पर गर्वोन्मत्त पाण्डवों का दर्पदलन करने के लिए श्रीकृष्ण उनको वीर बर्बरीक के दिव्य शीश के पास ले गए। ऐतिहासिक महासमर महाभारत के अमर साक्षी ने श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्रको ही विजयश्री के लिए एकमात्र उत्तरदायी ठहराया। सुनकर सभी पाण्डव हतप्रभ रह गए। महान् कर्मयोगी भगवान श्रीकृष्ण ने वीर बर्बरीक के अलौकिक दिव्य शीश को वरदान दिया कि वह कलियुग में उनके ही एक नाम "श्याम" के रूप में पूजित होगा। वह हारे का सहारा बनकर शरणागत की हर समस्या का समाधान करेगा। जो सच्चे मन से उनको याद करेगा उसके सारे सपने सच और हर इच्छा पूर्ण होगी। वह इहलोक और परलोक में यश का भागी होगा।
कलियुग में बाबा श्याम का प्राकट्य समय आया। एक चरवाहा सदैव जंगल में गायें चराने ले जाता था। एक गृहस्वामी किसान की गाय ने कुछ दिनों से शाम को घर पर दूध नहीं दिया तो उसने चरवाहे से इस बाबत शिकायत की। चरवाहे को सतत निगरानी रखने पर पता चला कि गाय एक टीले पर जाकर रुक जाती है और वहाँ स्वयं ही गाय के थनों से दुग्ध धारा निकल कर भूमि में समा जाती है। कौतूहलवष लोग उस स्थान की खुदाई करने लगे तो जमीन के अन्दर से आवाज आई कि खुदाई धीरे-धीरे और ध्यान से करें। थोडी खुदाई करने पर वहाँ बाबा श्याम का दिव्य शीश प्रकट हुआ। लोगों ने उसे एक ब्राह्मण को सुपुर्द कर दिया जो उसकी पूजा-आराधना करने लगा।

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